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आईजीएनसीए द्वारा भारत जापान सम्बंधों को दर्शाने वाली दो पुस्तकों का विमोचन

भारत और जापान के बीच सदियों पुराने संबंध हैं- ताकाशी कोबायाशी



नई दिल्ली, । इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) ने ‘पुस्तक लोकार्पण-परिचर्चा कार्यक्रम’ में दो अति महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का लोकार्पण किया, जिनके नाम हैं- ‘सिद्धम् कैलिग्राफी ऑफ संस्कृत हिरोनिम्स’ एवं ‘संस्कृत मैनुस्क्रिप्ट्स ऑफ जापान- वॉल्यूम 1’। पहली पुस्तक के लेखक हैं प्रो. लोकेश चंद्र और दूसरी पुस्तक लिखी है प्रो. निर्मला शर्मा ने। दोनों पुस्तकों को प्रकाशित किया है आईजीएनसीए ने। भारत और जापान के बीच समृद्ध सांस्कृतिक सम्बंधों को समझने में ये दोनों पुस्तकें महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगी। पुस्तकों का विमोचन आईजीएनसीए के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी; विदेश मंत्रालय में सलाहकार (जापान) अशोक चावला; दिल्ली विश्वविद्यालय की रंजना मुखोपाध्याय; जापान दूतावास में प्रथम सचिव (पीआर एवं संस्कृति) ताकाशी कोबायाशी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की जनश्रुति चंद्रा द्वारा किया गया। इस मौके पर दोनों पुस्तकों के लेखक लोकेश चंद्र एवं निर्मला शर्मा भी मौजूद थे। मंगोलिया के  पूज्य खम्बो लामा भी इस अवसर पर उपस्थित रहे।
                   पहली पुस्तक ‘सिद्धम् कैलिग्राफी ऑफ संस्कृत हिरोनिम्स’ बौद्ध धर्म के विश्रुत विद्वान् लोकेश चंद्र द्वारा लिखी गई है। यह पुस्तक जापान में सिद्धम् लिपि के इतिहास और उसके विकास-क्रम का विस्तृत अन्वेषण प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक न केवल सिद्धम् लिपि की कलात्मक जटिलताओं को उजागर करती है, बल्कि भारत और जापान के बीच आदान-प्रदान को सुविधाजनक बनाने में इसके सांस्कृतिक महत्त्व पर भी प्रकाश डालती है। इसमें कैलिग्राफी शैलियों, जापानी जेन लिपि की विशेषताओं, विभिन्न बौद्ध धारिणी, कश्मीर के प्रज्ञाकीर्ति की लिपि और कोबो दाशी द्वारा सिद्धम कैलिग्राफी की सहजता और उत्साहपूर्णता की पराकाष्ठा की चर्चा की गई है। इस पुस्तक का विमोचन लोकेश चंद्र की विद्वतापूर्ण यात्रा के एक उल्लासपूर्ण उत्सव का भी प्रतीक है, जिनका शैक्षणिक जगत में अद्वितीय योगदान 98 वर्ष की आयु में भी जारी है। इस कृति व रचनाशीलता के लिए सभी आमन्त्रित अतिथियों ने उन्हें अपनी शुभकामनाएं दीं। 
                      निर्मला शर्मा द्वारा लिखित ‘संस्कृत मैनुस्क्रिप्टस् ऑफ जापान वॉल्यूम 1’ जापान से संस्कृत पांडुलिपियों के प्रतिकृति संस्करणों की एक अभूतपूर्व श्रृंखला की शुरुआत का प्रतीक है। यह कोकिजी मठ के प्रतिष्ठित संग्रह से सावधानीपूर्वक पुनरुत्पादित बत्तीस प्रतिकृतियों को प्रदर्शित करता है। प्रो. शर्मा की सूक्ष्म रचनाशीलता पाठकों को संस्कृत पांडुलिपियों के समृद्ध भंडार में जाने का अवसर देती है, जिससे संस्कृत साहित्य के संरक्षण में जापान के अमूल्य योगदान को समझने में मदद मिलती है।
                        इस अवसर पर बोलते हुए प्रो. लोकेश चंद्र ने कहा कि कैलिग्राफी देश का हृदय है। सिद्धम् एक दिव्य लिपि है और जापान में धर्म के मन्त्रयान मार्ग की जीवंत गतिशीलता है। जापान का पहला संविधान होर्युजी मन्दिर में आज भी सुरक्षित है, जिसे लागू करने से पूर्व “उष्णीषविजया-धारिणी” से वर्ष 604 ईस्वी में अभिमन्त्रित किया गया था। यह गुप्तकालीन हस्तलिखित ग्रन्थ है, जो भारत से जापान गया था। यह संस्कृत ताड़पत्र आज तक सुरक्षित है, जो सिद्धम के पूर्व रूप में लिखा गया था। यह आज भी ‘राष्ट्र-निधि’ के रूप में सुरक्षित है। यह शासन की अनुमति से वर्ष में केवल एक बार पूजा हेतु निकाला जाता है।  
                      निर्मला शर्मा ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि ‘संस्कृत मैनुस्क्रिप्टस् ऑफ जापान वॉल्यूम 1’ व्यापक शोध और श्रम का परिणाम है। उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि कैसे पांडुलिपियों की प्रतिकृतियां जापान के प्रसिद्ध कोकिजी मठ से एकत्र की गईं। इस सन्दर्भ में उन्होंने 18वीं सदी के जापान के जियुन सोनजा और पांडुलिपियों के संग्रह में उनके उल्लेखनीय योगदान को भी याद किया।
                    आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा, बौद्ध धर्म जापानी संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। यह जापान के साथ हमारे सम्बंधों को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब हम इस सम्बन्ध को मजबूत या आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं, तो लोकेश चंद्र के अलावा कोई और हमारे सामने नहीं आता, जो हमारा मार्गदर्शन कर सके। 
                      अशोक चावला ने अपनी बात रखते हुए कहा कि जिन दो पुस्तकों को हम आज देख रहे हैं, वे दशकों की कड़ी मेहनत से एकत्र और परिपक्व किए गए संचयी ज्ञान का परिणाम है। दोनों कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जो भारत और जापान के बीच और अधिक सम्बंध खोजने में गहन शोध का द्वार खोलेंगे।
                      रंजना मुखोपाध्याय ने अपार संभावनाओं वाली पुस्तकों को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने भारत और जापान के बीच घनिष्ठ सम्बंधों के बारे में बात की। जापान में बौद्ध धर्म किस प्रकार से पहुंचा और वहां के आम जन पर एक अमिट छाप छोड़ी। 
                      जापानी दूतावास के प्रथम सचिव ताकाशी कोबायाशी ने कहा, ये दोनों पुस्तकें निश्चित रूप से भारत और जापान के बीच सम्बंधों को फिर से परिभाषित करेंगी। दोनों देश बौद्ध धर्म के माध्यम से अच्छे से जुड़े हुए हैं। इन पुस्तकों के प्रकाशन पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्होंने दोनों लेखकों को शुभकामना भी प्रेषित की।
                  जनश्रुति चंद्रा ने पुस्तकों की कुछ विशिष्ट विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दोनों पुस्तकें शोध पर आधारित हैं और इस क्षेत्र में काम करने वाले शोधकर्ताओं, विद्वानों का मार्गदर्शन करेंगी। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी जापानी ज़ेन सम्प्रदाय एवं कैलिग्राफी पर मॉड्यूल का समावेश हुआ है। इन दो मॉड्यूल के अध्ययन में दोनों पुस्तकें लाभकारी सिद्ध होंगी।
                 ये दोनों पुस्तकें भारत और जापान के बीच गहरे व समृद्ध सांस्कृतिक सम्बंधों के बारे में हमारी समझ को मजबूत करने में सहायक सिद्ध होंगी और भारत-जापान सांस्कृतिक सम्बंधों पर एक अमिट छाप छोड़ेंगी।

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